परंपरा, विज्ञान और स्वास्थ्य का अनमोल सूत्र है – “जनेऊ संस्कार”

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 27 अगस्त ::

भारतीय संस्कृति अपने भीतर गहन रहस्यों और वैज्ञानिक आधारों को समेटे हुए है। यहां की परंपराएं केवल धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि हर परंपरा के पीछे एक गहरी वैज्ञानिक सोच और जीवन को स्वस्थ, अनुशासित तथा संतुलित बनाने का दर्शन छिपा हुआ है। इन्हीं परंपराओं में से एक है “जनेऊ संस्कार या यज्ञोपवीत संस्कार”। जनेऊ को सामान्यतः केवल धार्मिक दृष्टि से देखा जाता है, किंतु वास्तव में यह एक ऐसा सूत्र है, जो शरीर, मन और आत्मा तीनों को अनुशासन और ऊर्जा से जोड़ता है।

जनेऊ एक विशेष प्रकार का पवित्र धागा है, जिसे संस्कृत में यज्ञोपवीत कहा जाता है। यह तीन सूतों से मिलकर बना होता है और इसे उपनयन संस्कार के दौरान धारण कराया जाता है। इसे बाएं कंधे के ऊपर से दाहिने हाथ के नीचे की ओर पहना जाता है। इसका संबंध केवल पूजा-पाठ से ही नहीं, बल्कि शिक्षा, अनुशासन और सामाजिक जिम्मेदारी से भी है। प्राचीन काल में जनेऊ धारण करने के पश्चात ही बालक को औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का अधिकार मिलता था।

भारतीय जीवन-दर्शन में संस्कारों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल 16 संस्कार बताए गए हैं, जिनमें से उपनयन संस्कार सबसे प्रमुख है। उपनयन का अर्थ है “गुरु के समीप ले जाना।”, यह संस्कार किसी शिष्य के औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का प्रवेश द्वार माना जाता था। जनेऊ धारण करने के पश्चात ही उसे गुरुकुल में प्रवेश मिलता था। यह केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं था, बल्कि शिक्षा और सामाजिक जीवन में प्रवेश का प्रतीक भी था।

जनेऊ सामान्य धागा नहीं है, बल्कि इसके प्रत्येक सूत्र का अपना विशेष महत्व है। प्रचलित परंपरा के अनुसार जनेऊ तीन धागों से मिलकर बना होता है। ये ऋणों का प्रतीक हैं ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण। इसका अर्थ है कि प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही इन तीन ऋणों का ऋणी है और उसे अपने कर्मों द्वारा इन्हें चुकाना चाहिए। कुछ मतों के अनुसार ये तीन सूत्र सत्त्व, रज और तम, इन तीन गुणों का प्रतीक हैं। अन्य दृष्टि से देखें तो ये तीन धागा जीवन के तीन प्रमुख लक्ष्य धर्म, अर्थ और काम का भी प्रतिनिधित्व करता हैं।

हिन्दू धर्मग्रंथों में जनेऊ का महत्व स्पष्ट रूप से वर्णित है। मनुस्मृति और गृह्यसूत्रों में इसका उल्लेख मिलता है। यज्ञोपवीत धारण करने वाला व्यक्ति यज्ञ, पूजा-पाठ, वेद-पाठ और अन्य धार्मिक कार्यों में भाग लेने का अधिकारी माना जाता है। यह धागा व्यक्ति को निरंतर स्मरण कराता है कि वह धर्म, संयम और आत्म-नियंत्रण के मार्ग पर चले।

जनेऊ धारण करना केवल व्यक्तिगत अनुष्ठान नहीं था, बल्कि समाज में व्यक्ति की नई भूमिका की घोषणा भी था। बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश का प्रतीक। समाज में जिम्मेदारी और कर्तव्य का बोध। जनेऊ धारण करने वाला व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने, विवाह करने और धार्मिक कर्मों में सम्मिलित होने का पात्र माना जाता था।

धार्मिक नियमों के अनुसार शौच आदि कार्य से पूर्व जनेऊ को दाएं कान पर लपेटना आवश्यक है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से कान के पीछे की नसों का सीधा संबंध पाचन तंत्र से होता है। जनेऊ को कान पर लपेटने से इन नसों पर हल्का दबाव पड़ता है, जिससे आंतों की क्रियाशीलता बढ़ती है और मल त्याग की प्रक्रिया सहज हो जाती है। यह कब्ज, गैस, एसिडिटी जैसे रोगों से बचाव करता है।

जनेऊ शरीर के बाएं कंधे से होकर दाहिनी भुजा तक लटकता है। यह मार्ग शरीर की प्राकृतिक विद्युत रेखा से होकर गुजरता है। इससे नसों और हृदय की धड़कन पर नियंत्रित प्रभाव पड़ता है। विशेष रूप से हृदय रोगियों के लिए जनेऊ लाभकारी माना जाता है।

जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति बिना स्नान या शुद्धिकरण के इसे नहीं छू सकता है। इससे स्वच्छता की आदत विकसित होती है। दांत साफ करना, हाथ-पांव धोना और कुल्ला करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है।

कंधे पर लटका यह सूत्र निरंतर स्मरण कराता है कि मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह पर नियंत्रण रखना है। यह आत्म-अनुशासन और संयम का प्रतीक है। ध्यान और साधना के समय यह मन को एकाग्र करने में सहायक होता है।

आज के समय में जब चिकित्सा विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है, तब भी कुछ बातें हमारी परंपराओं से मेल खाती हैं। Acupressure और Acupuncture जैसी चिकित्सा पद्धतियां भी शरीर की नसों और बिंदुओं पर दबाव डालकर ही स्वास्थ्य लाभ कराती हैं। कान पर दबाव डालने की प्रक्रिया इन पद्धतियों से मिलती-जुलती है। जनेऊ धारण करना शरीर के nervous system को सक्रिय रखता है।

योग शास्त्र में शरीर की ऊर्जा धाराओं का विशेष महत्व है। शरीर में तीन मुख्य नाड़ियां मानी जाती हैं इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। जनेऊ का धारण और उसका स्पर्श इन नाड़ियों को संतुलित रखने में सहायक माना जाता है। यह प्राणशक्ति के प्रवाह को नियंत्रित करता है और ध्यान-योग की साधना में सहायक होता है।

सारनाथ में बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा पर यज्ञोपवीत की रेखा स्पष्ट दिखाई देती है। इससे पता चलता है कि यह परंपरा केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं, बल्कि अन्य परंपराओं और संप्रदायों में भी प्रभावशाली रही है। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में भी जनेऊ के स्वरूप की झलक देखने को मिलती है।

मान्यता है कि जनेऊ पहनने से देवताओं का आशीर्वाद मिलता है। वैज्ञानिक पक्ष है कि यह धागा व्यक्ति को निरंतर अनुशासित और स्वच्छ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है, जिससे उसका शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है।

आज के समय में भले ही कई लोग इसे केवल एक धार्मिक कर्मकांड मानते हों, लेकिन इसके स्वास्थ्य और मानसिक लाभ को नकारा नहीं जा सकता है। व्यस्त जीवनशैली में अनुशासन और स्वच्छता बनाए रखने में सहायक है। शरीर को रोगों से बचाने और मन को नियंत्रित रखने का साधन है। नई पीढ़ी को अपनी परंपराओं से जोड़ने का माध्यम है।

कुछ लोग मानते हैं कि जनेऊ केवल जातिगत भेदभाव का प्रतीक है। यह दृष्टिकोण आंशिक रूप से सही है, क्योंकि समय के साथ इसकी प्रथा केवल कुछ वर्गों तक सीमित कर दी गई है। किंतु मूल रूप से यह संस्कार शिक्षा और अनुशासन से जुड़ा था, न कि जातिगत भेदभाव से। आज आवश्यकता है कि इसके वैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी पहलुओं को सामने लाया जाए।

जनेऊ को केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित न मानकर स्वास्थ्य और अनुशासन का प्रतीक मानें। नियमित स्वच्छता, ध्यान, और आत्म-नियंत्रण जैसी आदतों को अपनाएं। इसे समाज में नई पीढ़ी तक सही अर्थों में पहुंचाएं।

जनेऊ संस्कार केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक और स्वास्थ्यवर्धक अभ्यास है। यह शरीर की नसों पर प्रभाव डालकर पाचन और हृदय स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। स्वच्छता और अनुशासन की आदत विकसित करता है। मानसिक संयम और आत्म-नियंत्रण का बोध कराता है। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि यहां की प्रत्येक परंपरा में विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। जनेऊ संस्कार इसका जीवंत उदाहरण है। इसे अपनाना न केवल धर्मानुकूल है, बल्कि स्वास्थ्य और दीर्घायु की दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी है।

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