जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 11 मार्च ::
होली बुराई पर अच्छाई की, दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारों का नाश की, अनिष्ट शक्तियों को नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करने का और सदप्रवृत्ति मार्ग दिखाने वाला उत्सव के रूप में मनाया जाता है। मनुष्य के व्यक्तित्व, नैसर्गिक, मानसिक और आध्यात्मिक कारणों से भी होली का संबंध माना गया है । आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने से भी इसे जोड़ा गया है । वसंत ऋतु के आगमन और अग्नि देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के रूप में भी मनाया जाता है। होली फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन, और कहीं-कही फाल्गुनी पूर्णिमा से पंचमी तक पांच-छः दिनों तक, कहीं दो दिन, तो कहीं पांचों दिन तक मनाया जाता है।
होली अग्नि देव की उपासना का भी एक अंग है । होली के दिन अग्नि देव का तत्त्व 2 प्रतिशत कार्यरत रहता है। इस दिन अग्निदेव की पूजा करने से व्यक्ति को तेजतत्त्व का लाभ मिलता है, जिससे व्यक्ति में से रज-तम की मात्रा घटती है। होली के दिन अग्नि देव की पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है ।
होली त्रेता युग के प्रथम यज्ञ के स्मरण में मनाई जाती है। इसके संदर्भ में शास्त्रों एवं पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं । भविष्य पुराण में कहा गया है कि प्राचीन काल में ढुंढा अथवा ढौंढा नामक राक्षसी एक गांव में घुसकर बालकों को कष्ट कर देती थी। उसे गांव से निकालने के लिए लोगों ने बहुत प्रयास किया, लेकिन सफल नही हो सका। अंत में लोगों ने अपशब्द बोलकर, श्राप देकर तथा अग्नि जलाकर उसे डराकर भगाया।
एक अन्य कथाओं में कहा गया है कि हरणक्यशिपु नामक एक दुष्ट राजा था, उसका पुत्र प्रह्लाद था, जो बचपन से ही श्रीहरि (विष्णु) भक्त था, राजा ने उससे भक्ति भाव छोड़ने के लिए बहुत प्रयत्न किया लेकिन असफल रहा। होलिका दहन का त्योहार भक्त प्रहलाद और होलिका की कहानी से जुड़ा है। भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप और दादा कश्यप ऋषि और दादी दिति और प्रह्लाद की माता कयाधु थी। भक्त प्रह्लाद की माता श्रीहरि (विष्णु) की भक्त थी। भक्त प्रह्लाद की माता ने अपने पति हिरण्यकश्यप से बात को छिपा कर होशियारी से श्रीविष्णु का 108 बार नाम जप लिया था और इसके प्रभाव से ही प्रह्लाद जैसे विष्णुभक्त को जन्म दिया। भक्त प्रह्लाद के गुरु, ब्रह्मा के मानस पुत्र श्रीविष्णु के परम् भक्त नारदमुनिजी थे। नारदजी के अलावा दत्तात्रेय, शंड और मर्क आदि कई महान ऋषियों ने भी प्रह्लाद को शिक्षित और संस्कारवान बनाया था। भक्त प्रहलाद की पत्नि धृति थी, जिससे पुत्र विरोचन का जन्म हुआ। इसके अलावा आयुष्मान, शिवि और वाष्कल भी उनके पुत्र थे। विरोचन का विवाह बिशालाक्षी से हुआ था। जिससे महाबली और महादानी राजा बलि उत्पन्न हुआ, जो महाबलीपुरम के राजा बने। इन बालि से ही श्रीविष्णु ने वामन बनकर तीन पग धरती मांग ली थी। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से एक नई संक्रांति का सूत्रपात हुआ था। इंद्र से जहां आत्म संस्कृति का विकास हुआ वहीं विरोचन से भोग संस्कृति जन्मी। इसके पीछे भी एक कथा चलित है। भक्त प्रह्लाद दैत्य कुल के होने के बावजूद विष्णु भक्त थे। उनकी माता के अलावा सभी परिजन हिरण्यकश्यप और बुआ होलिका तथा अन्य आसुरी स्वभाव के लोग थे। जिनमें दत्तात्रेय, शंड और मर्क, आयुष्मान, शिवि, विरोचन, वाष्कल, और यशकीर्ति आदि विष्णुभक्त भी थे। जिनमें प्रह्लाद सबसे महान थे।
हिरण्यकश्यप की बहन होलिका थी, होलिका को श्रीहरि (विष्णु) से वरदान स्वरूप एक ऐसा चादर मिला था, जिसे ओढ़ कर अग्नि में प्रवेश करने पर अग्नि से नही जल सकती थी। हिरण्यकश्यप के कहने पर होलिका ने भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठ गई थी, लेकिन अग्नि कुंड में होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद बच गया।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीविष्णु भक्त प्रह्लाद का जन्म कृष्ण नगरी मथुरा के एक गांव फालैन में हुआ था। यहां पर भक्त प्रह्लाद तथा भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। भक्त प्रह्लाद श्रीहरि (विष्णु) के परम भक्त होने के साथ ही महाज्ञानी और पंडित थे। भगवान नृसिंह के आशीर्वाद और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन के चलते वे असुरों के महान राजा बन गए थे।
प्रह्लाद की बुआ होलिका जहां आग में जलकर मर गई थी वहीं दूसरी बुआ सिंहिका को हनुमानजी ने लंका जाते वक्त रास्ते में मार दिया था। भक्त प्रह्लाद के तीन भाई थे- अनुहल्लाद, हल्लाद और संहल्लाद। हरिश्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष उनका चाचा था जिसे श्रीहरि (विष्णु) ने वराह रूप धारण करके मार दिया था।
भक्त प्रह्लाद को श्रीहरि (विष्णु) का भक्त होने के कारण उनके पिता हिरण्यकश्यप ने उनका हर तरह से वध करने का प्रयास किया, लेकिन श्रीहरि (विष्णु) की कृपा से भक्त प्रह्लाद को नहीं मारा जा सका, तब प्रह्लाद की बुआ होलिका को हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को गोदी में लेकर जलती आग में बैठने के लिए कहा, क्योंकि होलिका को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि से जलकर नहीं मर सकती थी। परंतु होलिका ने उस वरदान का दुरुपयोग किया इसलिए होलिका आग में जलकर मर गई और भक्त प्रह्लाद बच गया। बाद में श्रीहरि ने नृसिंह अवतार लेकर हरिश्यकश्यप का वध करके भक्त प्रह्लाद को असुरों का राजा बना दिया।
अनेक कथाओं के अनुसार विभिन्न कारणों से होली उत्सव को देश-विदेश में विविध प्रकार से मनाया जाता है । कई स्थानों पर होली उत्सव महीने भर पहले से ही आरंभ हो जाती है । इसमें बच्चे घर-घर जाकर लकडियां इकट्ठी करते हैं। पूर्णमासी को होली की पूजा से पूर्व उन लकड़ियों की विशिष्ट पद्धति से सजाया जाता है । तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है । पूजा करने के उपरांत उसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है।
ब्रज की होली दुनिया में सबसे अनोखी और भव्य होती है। यहां होली में हर गली, मंदिर और चौक में रंगों और भक्ति का अद्भुत मेल देखने को मिलता है। यही वजह है कि हर साल हजारों श्रद्धालु और पर्यटक इस रंगारंग उत्सव का हिस्सा बनने आते हैं। होली के काफी दिन पहले से ही मथुरा, वृंदावन बरसाना, नंदगांव, गोकुल में होली अलग-अलग रूपों में मनाई जाती है, जो इसे विशेष बनाती है। बरसाना की लठमार होली, नंदगांव की होली और मथुरा की होली दुनियाभर में काफी मशहूर है।
वर्तमान समय में होली के अवसर पर अनेक अनाचार होते है, गंदे पानी के गुब्बारे फेंकना, अंगों पर खतरनाक रंग फेंकना, मद्यपान कर हुडदंग मचाना आदि विकृतियाँ होती है। इस विकृतियाँ को रोकना हमलोगों का कर्तव्य है। इसके लिए समाज के लोग को जागृत होना होगा। होली के समय होनेवाले अनाचारों को रोककर होली धर्मशास्त्र के अनुसार मनाया जाना चाहिए।
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