जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 27 जनवरी ::
राजनीति में कब कौन कहां और किसके साथ, कैसे होगा कौन पार्टी किस पार्टी के साथ किसी को नहीं होता है पता, लेकिन जो होगा, उसका अनुमान पहले से ही मीडिया के माध्यम से, हवा के बदले रुख को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे ही सियासी हवा इन दिनों बिहार में चल रही है। नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में मतभेद अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है और जदयू-राजद के साथ हुई गठबंधन, अलग होने पर मंथन चल रहा है। जो लोग समझ रहे हैं वो चुप हैं और ऐलान के इंतजार में हैं। जो नहीं समझ रहे हैं वो परेशान हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का स्वतंत्र राजनीतिक जीवन का राष्ट्रीय भविष्य उम्र के ढलान पर है और अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आने वाला राजनीतिक भविष्य एनडीए में जाने से ज्यादा फायदा दिख रहा है। इधर लालू यादव अपने पुत्र तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देखने के लिए एन-केन-प्रक्रेन में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू पर दवाब लगातार बना रहे हैं। ऐसी स्थित में नीतीश कुमार अपनी कुर्सी और अपनी जदयू पार्टी की फायदा को देखते हुए, राजद के साथ सरकार बनाने की भूल को सुधारने के लिए पूरी तरह तैयार दिख रहे है। इसी का परिणाम है बिहार की राजनीति में हलचल।
बिहार विधान सभा में राजनीतिक दलों की दलगत स्थिति (27 फरवरी 2023) में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की संख्या – 79, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) – 78, जनता दल यूनाइटेड (जदयू) – 45, इंडियन नेशनल कांग्रेस (कांग्रेस) – 19, कम्यूनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कससिस्ट-लेनिनिस्ट) (लिबरेशन) – 12, हिन्दूस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्यूलर) – 04, कम्यूनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कससिस्ट) – 02, कम्यूनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया -02, ऑल इंडिया मजलिस-ए-ईतेहादुल मुस्लमिन – 01 और निर्दलीय – 01 है।
वर्तमान राजनीतिक घटना क्रम में जो समझ रहे हैं उनका अनुमान है कि ये आने वाले कुछ दिनों में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सदा के लिए अलग-अलग होने को तैयार है। वैसे लालू और नीतीश की पार्टियों की बातें 2015 में भी गंभीर रूप से हुई थीं जब सपा, राजद, जदयू, जेडीएस, इनेलो और सजपा ने मिलकर जनता परिवार बनाने का ऐलान किया था, लेकिन वो बात ऐलान से आगे नहीं बढ़ सकी। मुलायम सिंह यादव को इस नई पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में तीन सीट ऑफर होने पर सपा ने ही सबसे पहले रास्ता अलग कर लिया था। 2015 में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने मिलकर बिहार में विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीतने के बाद नीतीश ने सरकार बनाई थी। फिर नीतीश 2017 में वापस एनडीए के पास चले गए और फिर से आरजेडी के साथ वापस आ गए। नीतीश इस बार जब लालू यादव के साथ आए तो माहौल अलग था। भाजपा दूसरे और जदयू तीसरे नंबर की पार्टी थी। विधानसभा में राजद सबसे बड़ी पार्टी थी। असदुद्दीन ओवैसी के चार विधायकों के राजद में शामिल होने से विधानसभा में भाजपा से बड़ी राजद पार्टी बनी। राजनीति के गलियारों में यह कहा जाता है कि ये चार विधायक जदयू में जाना चाहते थे लेकिन वहीं से इशारा हुआ कि राजद में जाकर विधानसभा में उसे सबसे बड़ी पार्टी बनाया जाए। ताकि भाजपा का साथ छोड़ने के बाद अगर राजभवन गठबंधन के बदले सबसे बड़ी पार्टी को ही पहला मौका देना चाहे तो भी भाजपा सरकार नहीं बना सके। प्लान कामयाब रहा। राजभवन ने कोई अड़चन भी नहीं पैदा की। एक दिन एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश का इस्तीफा हुआ। अगले दिन महागठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ हो गया। बिहार में सरकार चला रहे गठबंधन में बदलाव हुआ जब एनडीए की जगह महागठबंधन सरकार बन गई।
इससे पहले महाराष्ट्र में भाजपा ने ऑपरेशन लोटस का कमाल दिखा दिया था। 55 विधायकों वाली शिवसेना के मुखिया और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को जब तक बगावत की खबर लगी, तब तक उनके 40 विधायक एकनाथ शिंदे के साथ घूम रहे थे। सरकार बदल गई और आखिरी मौके पर भाजपा ने देवेंद्र फड़णवीस को झटका देते हुए बागी गुट के शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया जिससे ये लगे कि ये ऑपरेशन लोटस नहीं था। बगावत शिवसेना की थी और सरकार बनाने के लिए हमने समर्थन दिया। महाराष्ट्र का खौफ बिहार में काम कर रहा था। नीतीश की जदयू के विधायक तो 45 ही थे। ऊपर से उनके पुराने अध्यक्ष और तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री आरसीपी सिंह बागी हो चुके थे। एनडीए छोड़ने के बाद जदयू अध्यक्ष ललन सिंह ने बताया कि आरसीपी सिंह भाजपा के साथ मिल गए थे और जदयू को तोड़ने की साजिश कर रहे थे। तो इस तरह नीतीश की लालू के घर वापसी हुई।
नीतीश कुमार महागठबंधन में आने के बाद से ही 2024 के चुनाव के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने के मिशन में लग गए, जो राष्ट्रीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी का इशारा है। लालू भी यही चाहते थे कि तेजस्वी बिहार में मुख्यमंत्री बनें और नीतीश दिल्ली की राजनीति करें। इसी राजनीतिक सेट-अप को तैयार करने के लिए राजद और जदयू को मिलाकर एक बड़ी और मजबूत पार्टी बनाने की कोशिश की गई। राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह ने कहा भी था कि 2023 में तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश दिल्ली की राजनीति करेंगे। लेकिन नीतीश जिस कद के नेता हैं, उन्हें ये फॉर्मूला कतई कबूल नहीं हुआ कि राजद के साथ रहकर जदयू अपना अस्तित्व खत्म कर ले और राजद बनी रहे।
बिहार के मुख्यमंत्री विगत दिनों कांग्रेस के सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली गये थे, लेकिन मुलाकात नहीं हुई थी और कांग्रेस का सकारात्मक रुख महागठबंधन की ओर दिखाई नहीं पड़ी तो वे हतास हो गये। फिर वे अपना रूख बंगाल की ममता बनर्जी की ओर किया था वहाँ भी हताशा मिला। वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना था कि भाजपा को हटाने में हम साथ है। आगामी आम चुनाव में अब कुछ महीने ही बचा है और ऐसे में राजनीतिक गोलबंदी होना, गठबंधन में बिखराव होना भी लाजमी है। लेकिन जिस गंभीरता से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विकल्प तैयार करने में मसगूल थे, ऐसे में उन्हें कई सवालों के जवाब भी तैयार रखने होंगे।
नीतीश कुमार ने संयोजक के रूप में लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को परास्त करने के लिए महागठबंधन बनाने में विपक्षी पार्टियों के साथ शामिल हो कर बैठक 23 जून को पटना में की थी, जिसमें 15 राजनीतिक पार्टियाँ शामिल हुए थे। जबकि बैठक में 21 राजनीतिक पार्टियाँ को शामिल होने की संभावना थी। महागठबंधन में शामिल होने वालों में जदयू, राजद, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, भाकपा माले, एनसीपी, झामुमो, टीएमसी, डीएमके, शिवसेना(बाला साहेब ठाकरे गुट), समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी के कुल 27 नेता थे। वर्तमान समय में सीट बटवारे को लेकर महागठबंधन में कई दरारें पड़ गई है।
भाजपा और जदयू अपने उत्पत्ति से ही अलग-अलग विचारधारा और पृष्ठभूमि की पार्टी रही है। दोनो में कहीं से भी कोई मेल था ही नहीं। फिर भी राजनीतिक परिस्थिति ऐसी थी, कि इसमें नीतीश कुमार इस बार के 2020 के चुनाव के बाद अपने आप को एक कठपुतली और भारी दवाब में महसूस कर रहें थे। जिसका परिणाम यह हुआ की वह एनडीए से अलग महागठबंधन के साथ नई सरकार बना लिए। अब इसके बाद आगे की भविष्य की राजनीति में राज्य और केन्द्र दोनो के संदर्भ में उनके लिए अपनी पार्टी और खुद के स्वतंत्र छवि को कायम रखने के लिए दूसरा कोई विकल्प बचा ही नहीं है। उम्र के ढलान के बाद अपनी आखिरी राजनीतिक पारी को यादगार बनाने के लिए दूसरा कोई राजनीतिक धारा, बची हुई नहीं दिख रही है।
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