*बिहार विधानसभा चुनाव, 2025 – बिहार खड़ा है एक नया मोड़ पर – क्या 20 साल बाद लौटेगा सामाजिक न्याय का राज?* 

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 13 नवम्बर ::

बिहार की राजनीति एक बार फिर उस निर्णायक मोड़ पर खड़ी है, जहां सत्ता की चाबी जनता के हाथों में है और भविष्य का रास्ता मतदान की दिशा तय कर रहा है। दो चरणों में हुए मतदान के बाद यह स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि राज्य की सियासत में इस बार हवा का रुख कुछ बदला-बदला नजर आ रहा है। बीस साल बाद सामाजिक न्याय की राजनीति फिर से सिर उठाती दिखाई दे रही है। चुनावी डेटा, राजनीतिक समीकरण, और जनता के रुझान से यह संभावना प्रबल होती दिख रही है कि तेजस्वी यादव अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सत्ता की दहलीज पर दस्तक दे सकते हैं। लेकिन प्रश्न यह भी उतना ही बड़ा है कि अगर एनडीए बहुमत तक पहुंचा, तो क्या नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बन पाएंगे? या फिर भाजपा अपनी “स्वतंत्र सत्ता” की नीति पर चलते हुए कोई नया चेहरा सामने लाएगी?

बिहार का राजनीतिक इतिहास हमेशा से सामाजिक न्याय, जातीय समीकरण और विकास की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। 1990 के दशक में लालू प्रसाद ने जब सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने “सामाजिक न्याय” को अपना मूल मंत्र बनाया था। उन्होंने समाज के उस वर्ग को आवाज दी, जो दशकों से उपेक्षित था, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक। लालू के शासन को लोगों ने ‘भयमुक्त नहीं, मगर स्वाभिमानी बिहार’ का दौर कहा। 1990 से 1997 तक लालू प्रसाद ने अपनी शैली में सत्ता चलाई, जिसमें जातीय सशक्तिकरण की गूंज तो थी, मगर शासन और विकास की चुनौतियाँ भी थीं।

वहीं इसके बाद 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सत्ता का नया अध्याय शुरू हुआ, जहां “सुशासन” और “विकास” की राजनीति का दौर आया। सड़कें बनीं, बिजली आई, और प्रशासनिक सुधारों की चर्चा होने लगी। इस तरह बिहार ने दो भिन्न युग देखा है। एक “सामाजिक न्याय” का और दूसरा “विकास और सुशासन” का। अब 2025 में राज्य एक बार फिर उसी चौराहे पर है, जहां जनता तय करेगी कि अगला अध्याय किस विचारधारा का होगा।

इस चुनाव में दो चरणों के मतदान के बाद जो तस्वीर उभरकर आई है, वह बेहद दिलचस्प है। पहले चरण में एनडीए ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया है। खासकर उन इलाकों में जहां भाजपा की परंपरागत पकड़ है, बक्सर, भोजपुर, गया, और नवादा जैसे जिलों में। लेकिन दूसरे चरण में समीकरण पूरी तरह बदलते दिखाई दिया। उत्तर बिहार, सीमांचल, और मधुबनी जैसे इलाकों में महागठबंधन का पलड़ा भारी बताया जा रहा है। ग्राउंड रिपोर्ट और स्थानीय समीकरण यह संकेत देता है कि तेजस्वी यादव का युवा नेतृत्व, बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दों पर लोगों के दिलों में असर डाल रहा है। यदि यह रुझान अंतिम नतीजों तक कायम रहता है, तो संभव है कि महागठबंधन बहुमत की सीमा पार कर जाए।

महागठबंधन इस बार पूरी तरह संगठित और रणनीतिक रूप से सक्रिय दिखा है। राजद, कांग्रेस, वामदलों और कुछ छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। तेजस्वी यादव ने इस बार अपने चुनावी प्रचार में “विकास के साथ सम्मान” का नारा दिया है। उनकी सभाओं में युवाओं की भीड़ और महिलाओं की भागीदारी यह संकेत दे रही थी कि लोग परिवर्तन चाहते हैं, लेकिन ऐसा परिवर्तन जिसमें सामाजिक न्याय और आर्थिक अवसर दोनों हो। तेजस्वी का फोकस बेरोजगारी, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर रहा। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि नीतीश कुमार का विकास अब थक चुका है और नई पीढ़ी को अपने लिए अवसर चाहिए। उनकी भाषा में सरलता और मुद्दों में स्थानीयता थी। यही उनके प्रचार की सबसे बड़ी ताकत साबित हुई।

एनडीए, यानि भाजपा और जदयू का गठबंधन, लंबे समय से बिहार की सत्ता पर काबिज रहा है। लेकिन इस बार भाजपा के भीतर और बाहर दोनों जगह से सवाल उठ रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार अब भी भाजपा के लिए “वोट खींचने वाले चेहरे” के रूप में प्रभावी हैं? भाजपा के कई नेताओं ने संकेत दिया है कि पार्टी अब नीतीश कुमार के सहारे नहीं, बल्कि अपने दम पर सरकार बनाना चाहती है। सूत्रों के अनुसार, पार्टी नेतृत्व यह मानता है कि नीतीश का ‘सुशासन’ ब्रांड अब कमजोर पड़ गया है, और जनता उन्हें “थका हुआ चेहरा” मानने लगी है। इस पृष्ठभूमि में भाजपा एक रणनीतिक दांव भी खेल सकती है, यानि नीतीश कुमार को सत्ता में साझेदार रखकर भी मुख्यमंत्री पद किसी नए चेहरे को देना। यह कदम पार्टी के भीतर उत्साह पैदा करेगा और जनता में यह संदेश जाएगा कि भाजपा अब बिहार में नेतृत्व का “परिवर्तन” चाहती है।

बिहार की जनता इस बार जाति और समुदाय से परे जाकर सोचने की कोशिश करती दिख रही है। युवा वर्ग रोजगार को लेकर बेहद असंतुष्ट है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। लाखों युवाओं ने बेहतर अवसरों की तलाश में दिल्ली, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र का रुख किया है। ऐसे में “स्थानीय रोजगार” का मुद्दा हर गांव-गांव में चर्चा का विषय है।

महिलाएं भी इस बार निर्णायक भूमिका में दिखी है। नीतीश कुमार के शासन में उन्हें आरक्षण, साइकिल योजना और शराबबंदी जैसी योजनाओं से लाभ जरूर मिला है, लेकिन अब वे कह रही हैं कि “अब हमें सिर्फ सुविधा नहीं, सुरक्षा और सम्मान चाहिए।” यही कारण है कि ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का झुकाव तेजस्वी यादव की ओर भी देखा जा रहा है।

चंपारण का इलाका इस चुनाव में बेहद अहम साबित हो सकता है। यह क्षेत्र हमेशा से राजनीतिक रूप से सक्रिय और परिवर्तनशील रहा है। स्थानीय सूत्रों के अनुसार, यहां महागठबंधन को कुछ नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। भाजपा और जदयू ने यहां अपने पुराने गढ़ को बनाए रखने के लिए जबरदस्त अभियान चलाया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की रैलियों ने भाजपा समर्थकों में जोश भरा है।

वहीं सीमांचल में स्थिति इसके ठीक उलटा है। यहां मुस्लिम और पिछड़े वर्गों की संख्या अधिक है, और यह इलाका परंपरागत रूप से महागठबंधन के पक्ष में मतदान करता रहा है। इस बार भी सीमांचल महागठबंधन की ‘सेफ बेल्ट’ के रूप में देखा जा रहा है।

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, दोनों ही बिहार की राजनीति के ऐसे नाम हैं, जिनके बिना राज्य की सत्ता की कहानी अधूरी है। लालू प्रसाद का युग सामाजिक स्वाभिमान का प्रतीक था। उन्होंने नारा दिया था “भूरा बाल साफ करो” (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला)। यह नारा चाहे विवादास्पद रहा हो, लेकिन उसने वंचित समाज को यह एहसास कराया कि वे भी सत्ता का हिस्सा बन सकते हैं। उनकी राजनीति ने सामाजिक समीकरणों को उलट-पुलट दिया।

दूसरी ओर, नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के शासन के बाद कानून-व्यवस्था और प्रशासन में सुधार लाकर खुद को ‘विकास पुरुष’ के रूप में स्थापित किया। उनका शासन “रोड, स्कूल, बिजली और गर्ल्स एजुकेशन” जैसे ठोस मुद्दों पर केंद्रित रहा। लेकिन अब वही नीतीश कुमार जनता को पुराने वादों से प्रेरित करने में असफल दिख रहे हैं। यही वजह है कि लोग यह कहने लगे हैं कि “विकास हुआ, लेकिन अब रोजगार चाहिए।”

इस बार के चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लगभग 1.5 करोड़ मतदाता 18 से 30 वर्ष की आयु के बीच हैं। यह वर्ग पारंपरिक राजनीतिक नारेबाजी से ज्यादा अपने भविष्य को लेकर सजग है। तेजस्वी यादव ने इस वर्ग को सीधे संबोधित किया है और उन्होंने कहा है कि अगर उनकी सरकार बनती है तो 10 लाख सरकारी नौकरियां दी जाएंगी। भले ही विपक्ष ने इसे अव्यावहारिक बताया हो, लेकिन इस वादे ने युवाओं के मन में उम्मीद जगाई है।

भाजपा ने भी युवाओं को आकर्षित करने के लिए स्टार्टअप, स्किल डेवलपमेंट और डिजिटल इंडिया की योजनाओं का हवाला दिया है। लेकिन जमीन पर युवाओं का बड़ा वर्ग मानता है कि “सपने बहुत दिखाए गए, मगर रोजगार अब भी दूर है।”

भाजपा नेतृत्व का एक हिस्सा चाहता है कि पार्टी अब बिहार में “स्वतंत्र नेतृत्व” का चेहरा तैयार करे। यह विचार 2020 के बाद से ही जोर पकड़ रहा था, जब भाजपा ने जदयू की सीटों से अधिक सीटें जीतकर भी मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार को दिया। पार्टी के अंदर इसे एक ‘राजनीतिक समझौता’ माना गया, लेकिन अब ऐसा लगता है कि भाजपा दोबारा वही गलती नहीं दोहराना चाहती है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर भाजपा को बहुमत के आसपास सीटें मिलती हैं, तो वह नीतीश कुमार को किनारे कर कोई नया चेहरा मुख्यमंत्री के रूप में सामने ला सकती है। ऐसा करने से पार्टी को भविष्य में बिहार में “स्थायी नेतृत्व” स्थापित करने में मदद मिलेगी।

बिहार में छोटे दल हमेशा ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाते आए हैं। इस बार भी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी), और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) जैसे दल नतीजों पर निर्णायक प्रभाव डाल सकता है। इसमें से कुछ दलों ने भले ही एनडीए या महागठबंधन के साथ गठबंधन किया हो, लेकिन चुनाव के बाद उनके रुख से ही सत्ता का स्वरूप तय होगा।

मीडिया इस बार के चुनाव में दो भागों में बंटा दिखा है। एक ओर राष्ट्रीय चैनल जहां भाजपा के विकास मॉडल को बढ़ावा दे रहा था, तो वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय मीडिया तेजस्वी यादव के जनसंपर्क अभियान को ज्यादा महत्व दे रहा था। सोशल मीडिया भी इस बार बेहद सक्रिय रहा है। तेजस्वी यादव के रील्स, छोटे वीडियो और युवाओं से सीधे संवाद ने डिजिटल प्लेटफॉर्म पर नई राजनीतिक भाषा गढ़ दी है। वहीं भाजपा ने अपने आईटी सेल के माध्यम से “डबल इंजन सरकार” के फायदे गिनाने की कोशिश की है।

बिहार की जनता के सामने इस बार दो विकल्प हैं। एक, नीतीश कुमार का स्थायित्व, जो पिछले दो दशकों से सत्ता का केंद्र रहे हैं। दूसरा, तेजस्वी यादव का स्वाभिमान आधारित नेतृत्व, जो परिवर्तन का वादा कर रहा है। लोग यह तय करेंगे कि वे “स्थायित्व” चाहते हैं या “नया जोश।” दोनों के बीच यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन नहीं है, बल्कि विचारधारा का टकराव भी है। एक तरफ “सुशासन मॉडल” और दूसरी तरफ “सामाजिक न्याय मॉडल।”

यदि महागठबंधन सत्ता में आता है, तो सबसे पहले नौकरियों, शिक्षा और स्वास्थ्य पर फोकस बढ़ेगा। तेजस्वी यादव ने अपने घोषणा पत्र में सरकारी भर्तियों में पारदर्शिता, स्कूलों में शिक्षक नियुक्ति और ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे के पुनर्निर्माण की बात कही है। वहीं सामाजिक न्याय की पुरानी परंपरा को फिर से मजबूत किया जाएगा। इसके साथ ही नई सरकार को सबसे बड़ी चुनौती होगी आर्थिक प्रबंधन की। बिहार की जीडीपी अब भी राष्ट्रीय औसत से नीचे है, और राज्य की 80% आबादी कृषि या मजदूरी पर निर्भर है। नई सरकार को निवेश, उद्योग और रोजगार के बीच संतुलन बनाना होगा।

बिहार एक बार फिर राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। चुनाव परिणाम चाहे जो भी हों, लेकिन यह तय है कि राज्य की राजनीति अब “पुराने नारे” पर नहीं चलेगी। लोग अब मुद्दे चाहते हैं रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान। नीतीश कुमार के शासन ने बिहार को स्थिरता दी, पर अब जनता बदलाव की तलाश में है। तेजस्वी यादव उस बदलाव के प्रतीक बनकर उभरे हैं। अगर यह बदलाव होता है, तो यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि “विचार परिवर्तन” होगा जहां सामाजिक न्याय और विकास की दो धाराएं मिलकर बिहार को नई दिशा देगी।

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