जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 17 जुलाई ::
देश में वोट बैंक की राजनीति करने वाले लोग “समान नागरिकता संहिता” का पुरजोर विरोध कर रहे है। इससे बिहार की वर्तमान सरकार भी अछूता नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री से शनिवार को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड दिल्ली के प्रतिनिधि मंडल, जिसमें उत्तर प्रदेश, दिल्ली और बिहार के प्रतिनिधि शामिल थे, ने मुलाकात कर अपना ज्ञापन सौंपा है। ज्ञापन सौंपने के बाद प्रतिनिधि मंडल ने बताया है कि उन्हें मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है कि “समान नागरिकता संहिता” को लेकर वह अपने पुराने स्टैंड पर कायम है और इस संबंध में 2017 में ही केन्द्र सरकार (विधि आयोग) को पहले ही बता दिया है। इस स्टैंड पर वह अभी भी कायम है। इसका मतलब हुआ कि बिहार में नहीं लागू होगा “समान नागरिकता संहिता”।
देखा जाय तो किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश के लिए कानून, धर्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए। क्योंकि यदि देश और राज्य धर्मनिरपेक्ष है, तो कानून धर्म पर आधारित कैसे हो सकता है? जबकि समान नागरिक संहिता लागू होने से ऐसा लगता है कि देश के सभी नागरिको को अनेक लाभ होंगे, क्योंकि शादी के लिए जो नियम अभी है, उसके जगह सभी धर्मो और पंथो के लिए एक नियम हो जायेंगे। सभी धर्मो के लोगो पर, एक पत्नी और एक पति, का नियम लागू हो जायेगा। विवाह विच्छेद (तलाक) का नियम भी एक रूप मे लागू हो जायेगा। दान (वसीयत) एवं बटवारा के नियम भी एक हो जायेगा। इसका अर्थ हुआ कि बेटा/बेटी/बहु सब को एक समान अधिकार मिलेगा।
“समान नागरिकता संहिता” लागू हो जाने पर विशेष रूप से अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं की स्थिति में व्यापक सुधार आयेगा। क्योंकि “समान नागरिकता संहिता”
बन जाने के बाद उनके लिए अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार जताने और गोद लेने जैसे मामलों में एक समान नियम लागू हो सकेगा।
“समान नागरिकता संहिता” लागू होने पर देश के सभी लोगों के लिए एक नियम यानि सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने के नियम एक हो जायेंगे। भारतीय संविधान में “समान नागरिक संहिता” का उल्लेख भाग-4 के अनुच्छेद – 44 में है। इसमें नीति निर्देश दिया गया है कि “समान नागरिक कानून” लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। डॉ भीम राव अंबेडकर भी इस संहिता के पक्षधर थे। यह संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” के सिद्धांत का पालन करना है।
भारत अनुबंध अधिनियम 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, सम्पत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882, भागीदारी अधिनियम 1932, साक्ष्य अधिनियम 1872, जैसे मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक समान नियम लागू है, लेकिन धार्मिक मामलों में सब के लिए अलग- अलग कानून लागू है और इनमें बहुत विविधता भी है। जबकि देश में आपराधिक कानून और उस पर सजा का प्रावधान भी सभी धर्मों के अनुयायियों पर समान रूप से लागू है, यानि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में सभी धर्म के लोगों के लिए सजा का कानून समान है। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि “फैमली लॉ” में समानता क्यों नहीं होनी चाहिए?
उत्तराखंड सरकार ने न्यायमूर्ति रंजना देसाई की अध्यक्षता में एक वर्ष पहले ही कमिटी बनाई थी और यह कमिटी “समान नागरिक संहिता” पर अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह राज्य जल्द ही “समान नागरिक संहिता” कानून को लागू कर लेगा। 1867 में गोवा में पुर्तगाली शासकों ने “समान नागरिक संहिता” लागू किया था, जिसे स्वतंत्रता के बाद थोड़ा बदलाव के साथ अभी भी लागू है। जबकि अकाली दल “समान नागरिक संहिता” का विरोध कर रहा है। क्योंकि सिखों के विवाह का अलग कानून था, पंजीकृत करने का प्रावधान है लेकिन कई राज्यों ने इस संबंध में अधिसूचना जारी नहीं किया है और इन्हें भी हिन्दू विवाह कानून के अन्तर्गत ही पंजीकृत किया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसे स्वीकार कर लिया गया है। इनकी माँग है कि राज्यों को निर्देश दिए जायें कि सिखों के विवाह 1909 के आनंद कारज विवाह कानून के अंर्तगत पंजीकृत किया जाय। मिली जानकारी के अनुसार “सिख पर्सनल लॉ बोर्ड” का भी गठन हुआ है, जो “समान नागरिक संहिता” का विरोध करेगा।
“समान नागरिक संहिता” को समर्थन देने वाले विपक्षी पार्टियों में आम आदमी पार्टी, शिव सेना (शिंदे गुट), बहुसंख्यक समाज पार्टी, शिव सेना (उद्धव ठाकरे गुट) शामिल है। वहीं मुस्लिम संगठन इसका पुरजोर विरोध कर रहे है। भारत में मुस्लिम समुदाय पर 1937 का मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी “समान नागरिक संहिता” का विरोध कर रहा है, क्योंकि उनका मानना है कि इस कानून के लागू होने से समुदाय से वे हक छिन जायेगा जो उन्हें पुराने कानून के तहत प्राप्त है। कांग्रेस के साथ ही, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) ने अपने अपने विरोध में संसदीय समिति प्रस्ताव भेजा है।
केन्द्र सरकार हर तरह से लोकतांत्रिक चर्चाओं को पूरा करने के बाद ही देश में “समान नागरिक संहिता” लाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे भी “समान नागरिक संहिता” को लेकर देश में समय-समय पर बहस होते रही है और लोग तरह-तरह के अपने विचार रखते रहे हैं। कोई इसे एक खास धर्म के खिलाफ बताते है, तो कोई इसे देश हित में बताते है। जबकि सभी दलों को समान नागरिक सहिता लागू करने के लिए सामूहिक प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्र और मानवता के हित में होगा। समाज को धार्मिक संकीर्णता छोड़कर अब “समान नागरिक संहिता” की बात करनी चाहिए। यह तो बहुत अच्छी बात है कि विधि आयोग ने “समान नागरिक संहिता” निर्माण के लिए आम लोगों और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों से सुझाव माँगा है। मुझे लगता है कि यदि “समान नागरिक संहिता” लागू होता है तो अल्पसंख्यक देश के मुख्य धारा में आ जायेंगे।