जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 16 सितम्बर ::
मानव सभ्यता के इतिहास को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज, राज्य और राष्ट्र की दिशा को भय और स्वार्थ ने ही सबसे अधिक प्रभावित किया है। भय चाहे वह बाहरी शत्रु का हो या आंतरिक विघटन का और स्वार्थ, चाहे वह व्यक्तिगत हो, जातीय हो या राजनीतिक, हमेशा वर्तमान की जमीन पर खड़ा होकर भविष्य की स्थिरता और अस्थिरता तय करता है। अतीत की स्मृतियों से ज्यादा और वर्तमान की आवश्यकताओं से परे जाकर यह दोनों तत्व मिलकर आने वाले कल की बुनियाद तैयार करता है।
आज के वैश्विक परिदृश्य में पड़ोसी देशों गनी (अफगानिस्तान), इमरान (पाकिस्तान), राजपक्षे (श्रीलंका), हसीना (बांग्लादेश) और ओली (नेपाल) की दशा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन देशों की वर्तमान स्थिति यही दिखाती है कि जब शासन और जनता भय एव स्वार्थ की राजनीति में उलझ जाते हैं, तो स्थायित्व की जगह अस्थिरता का बोझ आने वाली पीढ़ियों को ढोना पड़ता है।
भय और स्वार्थ का सबसे बड़ा परिणाम यह होता है कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला बना देता है। जब नेता सत्ता में बने रहने के लिए भय का वातावरण तैयार करते हैं और जनता को स्वार्थ की चकाचौंध में उलझा देते हैं, तो धीरे-धीरे पूरा राष्ट्र असंतुलन की ओर बढ़ने लगता है।
अफगानिस्तान का गनी शासन ने स्वार्थ और अमेरिकी समर्थन पर आधारित सत्ता को बचाने के लिए जनता के विश्वास को गिरवी रख दिया। भय का ऐसा माहौल बना कि जब तालिबान ने कदम बढ़ाया तो पूरा तंत्र गिर पड़ा।
पाकिस्तान का इमरान शासन ने जनता के सपनों को क्रांति के नारों से सजाया, लेकिन पीछे छिपा सैन्य तंत्र और व्यक्तिगत स्वार्थ ने पाकिस्तान को और गहरे संकट में धकेल दिया।
श्रीलंका का राजपक्षे परिवार स्वार्थ की चरम सीमा पर जाकर राजपक्षे परिवार ने देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया। परिणामस्वरूप जनता को सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज बुलंद करनी पड़ी।
बांग्लादेश की हसीना सरकार चुनावी लोकतंत्र के आवरण में सत्ता से चिपके रहने का स्वार्थ जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रहा है।
नेपाल का ओली शासन सत्ता में बने रहने की भूख ने, संविधान और जनता की आकांक्षाओं को ठेंगा दिखाया और नतीजा यह हुआ कि जनाक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा।
भय का असली खेल यह है कि यह अनिश्चितता को जन्म देता है। लोग जब असुरक्षित महसूस करते हैं, तो वे तर्क की जगह भावनाओं के आधार पर निर्णय लेने लगते हैं। यह स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक होती है। भय से उपजा माहौल लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करता है। भय के चलते जनता असली मुद्दों को भूलकर झूठे सुरक्षा वादों में फँस जाती है। अनिश्चितता लोकतंत्र के प्रति अविश्वास पैदा करती है।
भारत में पिछले सात वर्षों से भी कई बार ऐसे प्रयास हुए हैं कि भय और स्वार्थ की राजनीति आमजन पर हावी हो सके। लेकिन यहाँ की सबसे बड़ी ताकत है संविधान और उसकी संस्थाएँ। विधायिका और कार्यपालिका ने कई बार अपने निर्णयों से यह साबित किया है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए खड़े हैं।
यह भी उतना ही सच है कि यदि जनता समय रहते जागरूक न हो, तो भय और स्वार्थ की राजनीति धीरे-धीरे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर सकती है।
आमजन अक्सर तब तक समझ नहीं पाते जब तक बहुत देर न हो जाए। स्वार्थ के छोटे-छोटे लाभों में फँसकर वे यह भूल जाते हैं कि इसके दीर्घकालिक परिणाम उनके ही घर और समाज को जला देगा। पड़ोसी देशों की जनता भी लोकतांत्रिक अधिकार रखता था। वह वोट से बदलाव ला सकता था। लेकिन भय और स्वार्थ के दबाव में उन्होंने चुप्पी साध ली। परिणाम यह हुआ कि उनका लोकतंत्र खोखला हो गया और उनकी बस्तियाँ उजड़ गईं।
भारत को अपने पड़ोसी देशों से सबक लेना चाहिए। लोकतंत्र केवल वोट डालने तक सीमित नहीं है। यह एक सतत जिम्मेदारी है, जिसमें नागरिकों को न सिर्फ सवाल करना होता है, बल्कि अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन भी बनाना होता है। यदि जनता भय के वातावरण को स्वीकार कर ले, तो तानाशाही की राह आसान हो जाती है। यदि जनता स्वार्थ की राजनीति में उलझ जाए, तो सामूहिक हित की जगह व्यक्तिगत लाभ सर्वोपरि हो जाता है।
भारत और उसके नागरिकों के सामने चुनौती यही है कि वह भय और स्वार्थ की राजनीति से ऊपर उठकर दीर्घकालिक स्थिरता की राह चुनें। इसके लिए कुछ मूलभूत कदम आवश्यक हैं। संसद, न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता को बचाना। जनता को यह समझाना होगा कि भय और स्वार्थ तात्कालिक लाभ तो दे सकता है लेकिन भविष्य के लिए घातक होता है। हर राजनीतिक निर्णय संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए। नागरिकों को सक्रिय रूप से शासन में भागीदारी करनी होगी।
भय और स्वार्थ से उपजे संकट का समाधान केवल एक ही है सजगता और जिम्मेदारी। जब तक यह नहीं समझेंगे कि स्वार्थ की आग में घर जलाना अंततः विनाशकारी है, तब तक पड़ोसियों की तरह लोकतांत्रिक मूल्यों को खो बैठेंगे। आज भारत के सामने अवसर है कि वह भय और स्वार्थ की राजनीति से ऊपर उठकर संविधान और लोकतंत्र को और मजबूत बनाए। यदि सजग रहेंगे, तो भय और स्वार्थ का खेल कभी सफल नहीं होगा, और भविष्य स्थायित्व और समृद्धि की राह पर अग्रसर होगा।
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